गौ-आधारित प्राकृतिक खेती (Cow-Based Natural Farming)

गौ-आधारित प्राकृतिक खेती

अब यह आवश्यक हो गया है कि कृषि विकास के लिए खेती तन्त्र (Farming System) को प्रत्येक कृषक परिवार अपनाएं, जिससे कि फसल-तन्त्र (Cropping System) के प्रभाव से असंतुकलत जलवायु परिवर्तन से बचा जा सके। खेती तन्त्र (Farming System) में फसल चक्र के साथ-साथ गौ-पालन/गौ-वंश संरक्षण जुड़ा रहता है। जबकि फसल-तन्त्र (Cropping System) में फसलों के उत्पाद वृद्धि हेतु सिथेटिक रासायनों पर निर्भर रहना पड़ता है। खेती तन्त्र (Farming System) पी०एम० प्रमाण (प्रधानमंत्री प्रमोशन ऑफ अल्टरनेटिव न्यूट्रियेण्ट मैनेजमेण्ट) योजना को बल भी प्रदान करता है।

भारतीय संस्कृति में आदिकाल से ही कृषि में गौ उत्पादों जैसे गोबर और गौमूत्र का प्रयोग होता रहा है ऋग्वेद में कहा गया है- ‘‘गावो विश्वस्य मातरः‘‘ अर्थात गाय विश्व की माता है और यह विश्व का पोषण करने वाली है। विष्णु पुराण में कहा गया है- ‘‘सर्वेषामेव भूताना गावः शरणमुत्तमम्‘‘ अर्थात सभी प्राणियों के लिए सर्वोत्तम आश्रय है। भारत की समयांतर में कृषि पद्धति में अत्यधिक परिवर्तन हुआ है। भारत की लगातार बढ़ती जनसंख्या के कारण उत्पादन क्षमता बढ़ाने के दबाव में अंधाधुंध रासायनिक उर्वरकों, हानिकारक कीटनाशकों एवं अधिकाधिक भूजल उपयोग से भूमि की उर्वरा शक्ति, उत्पादन, भूजल स्तर और मानव स्वास्थ्य में निरंतर गिरावट आई है।

किसान बढ़ती लागत एवं बाजार पर निर्भरता के कारण खेती छोड़ रहे हैं और आत्महत्या तक करने पर मजबूर हो रहे हैं। वर्मी कंपोस्ट, कंपोस्ट बायोडायनामिक का निर्माण एवं प्रयोग भी जटिल होने के कारण अन्ततः किसान को बाजार पर ही निर्भर बनाती है। वर्तमान समय में ऐसे कृषि पद्धति की आवश्यकता बनती है जिसमें लागत कम हो, उपज अधिक हो, उत्पन्न खाद्यान्न की गुणवत्ता उच्च कोटि की हो, मानव स्वास्थ अच्छा बना रहे एवं पर्यावरण भी समृद्ध बना रहे। गौ-आधारित प्राकृतिक खेती में खेत के लिए बाजार से कुछ भी नहीं खरीदना अपितु कृषक के पास उपलब्ध संसाधनों द्वारा देसी गाय आधारित कृषि पर बल देना है। इसलिए इस प्रकार की खेती का नामकरण शून्य लागत प्राकृतिक खेती भी है।

ध्यान देने योग्य बातें -

Ø  प्राकृतिक कृषि में देशी बीज ही प्रयोग करें। हाइब्रिड बीजों से अच्छे परिणाम नहीं मिलेंगे।

Ø  प्राकृतिक कृषि में भारतीय नस्ल का देसी गोवंश ही उपयोग करें। जर्सी या होलस्टीन आदि हानिकारक है।

Ø  पौधों व फसल की पंक्ति की दिशा उत्तर-दक्षिण हो। दलहन फसलों की सह फसलें करनी चाहिए।

Ø  यदि किसी दूसरे स्थान पर बनाकर खाद (कंपोस्ट) लाकर खेतों में डाला जाएगा तो, मिट्टी में पाए जाने वाले सूक्ष्म जीवाणु निष्क्रिय हो जाएंगे।

Ø  पौधों का भोजन जड़ के निकट ही बनना चाहिए तब भोजन लेने के लिए जड़े दूर तक जाएंगी और लंबी व मजबूत बनेगी परिणामस्वरूप पौधा भी लंबा और मजबूत बनेगा।

प्राकृतिक खेती का सिद्धान्त -

प्रकृति में सभी जीव एवं वनस्पतियों के भोजन की एक स्वावलंबी व्यवस्था है, जिसका प्रमाण है बिना किसी मानवीय सहायता (खाद, कीटनाशक आदि) के जंगलों में खड़े हरे-भरे पेड़ व उनके उनके साथ रहने वाले लाखों जीव जंतु।

पौधों के पोषण के लिए आवश्यक सभी 16 तत्व प्रकृति में उपलब्ध रहते हैं, उन्हें पौधे के भोजन रूप में बदलने का कार्य मिट्टी में पाए जाने वाले करोड़ों सूक्ष्म जीवाणु करते हैं। इस पद्धति में पौधों को भोजन ना देकर भोजन बनाने वाले सूक्ष्म जीवाणु की उपलब्धता पर जोर दिया जाता है (जीवामृत, घन जीवामृत द्वारा)।

पौधों के पोषण की प्राकृतिक में चक्रीय व्यवस्था है। पौधा अपने पोषण के लिए मिट्टी से सभी तत्व लेता है। फसल के पकने के बाद कास्ठ पदार्थ (कूड़ा-करकट) के रूप में मिट्टी में मिलकर, अपघटित हो कर मिट्टी को उर्वरा शक्ति के रूप में लौटाता है।

वस्तुतः प्राकृतिक खेती का मूल सिद्धांत यह है कि जल, वायु एवं भूमि खेती के लिए आवश्यक सभी पोषक तत्व प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। यह प्राकृतिक खेती अनुकूल स्थानीय परिस्थितकी का निर्माण कर आवश्यक पोषक तत्वों की उपलब्धता सुनिश्चित करती है साथ ही साथ मित्र कीट-पतंगों की संख्या में वृद्धि द्वारा फसलों को कीट-पतंगों एवं बीमारियों से सुरक्षा करती है।

प्रदेश में पशु जनगणना -2019 के आधार पर 193.46 मिलियन गौ-वंश है, जिनसे अमृत दुग्ध तो प्राप्त होता ही है साथ कृषि-क्षेत्र के लिए मूल्यवान गोबर एवं मूत्र जिससे घनजीवामृत, तथा कम्पोस्ट जैसे अत्यन्त उपयोगी खाद भी तैयार होती है, जिससे जीवांश कार्बन की प्रतिशतता में वृद्धि होती है।

प्राकृतिक खेती का मुख्य आधार खेती तन्त्र (Farming System) है जबकि वर्तमान में सामान्यतया फसल तन्त्र (Cropping System) की तरफ औसतन किसान उन्मुख है इसी कारण प्राकृति में असंतुलन बढ़ता जा रहा है। कृतिक खेती से प्राकृतिक सम्पदा सुरक्षित रहती है साथ ही भारतीय गो-वंश संरक्षण का एक मजबूत माध्यम बनता है।

वर्तमान में भारत सरकार द्वारा लगभग 1.08 लाख करोड़ रुपये यूरिया एवं डी.पी.ए. खाद पर सब्सिडी दी जा रही जो कि अर्थव्यवस्था पर एक बडा भार है इसके साथ-साथ पेस्टिसाइढ प्रयोग करने पर खेती की लागत में लगभग 1 से 1.5 गुना की वृद्धि होती है। प्राकृतिक खेती पद्धति में सिंचाई जल की भी बचत होती है। जमीन में पानी सोखने की क्षमता बढ़ती है यदि वर्षा कम हो तो लम्बे समय तक जल की उपलब्धता बनी रहती है। प्राकृतिक-खेती द्वारा सामान्य मिट्टी में जैविक कार्बन में दो-गुणा की वृद्धि सम्भावित रहती है साथ ही नत्रजन, फासफोरस, पोटाश के साथ-साथ जिंक, आयरन, कॉपर की उपलब्धता मृदा में बढ़ जाती है।

प्राकृतिक कृषि का सिद्धान्त है कि मृदा, जल तथा वायु का संरक्षण फसलों का ही नहीं अपितु मृदा की उर्वरक शक्ति में भी सुधार होता है। मृदा के स्वस्थ होते ही फसले स्वस्थ्य होती है। खाद या कीटनाशक दवाओं के नाम पर कोई भी उत्पाद बाजार से नहीं खरीदना पड़ता है। प्राकृतिक खेती एक सामूहिक प्रयास है, जिससे पौधे के स्वास्थ्य पर ही नहीं बल्कि मिट्टी का स्वास्थ्य भी समुन्नत होता है।

प्राकृतिक कृषि पद्धति में केंचुओं की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है। अकेले केंचुआ से 214 किलो नाइट्रोजन प्रति एकड़ (535 किलो प्रति हैक्टेयर) की मिट्टी में उपलब्धता सुनिश्चित होती है। इसके अतिरिक्त सह फसलों के रुप में दलहनी एवं तिलहनी फसले द्वारा नाइट्रोजन सल्फर का प्रबन्धन भी होता है।

प्राकृतिक कृषि में फसलों की वृद्धि के लिए और उपज लेने के लिए जिन-जिन संसाधनों की आवश्यकता होती है वे भी किसान के खेत से ही उपलब्ध हो जाते है। प्राकतिक कृषि का नारा "गांव का पैसा बांव में और शहर का पैसा भी गांव में" इस तरह देश का पैसा देश में, देश का पैसा विदेश को नहीं बल्कि विदेश का पैसा देश में लाना, यही प्राकृतिक खेती का उद्देश्य है।

गौ-आधारित प्राकृतिक खेती

गौ-आधारित प्राकृतिक खाद

घनजीवामृत - घटक - देशी गाय का गोबर 100 किग्रा. गुड़। से 1.5 किग्रा. बेसन 2 किग्रा, खेत या मेड़ की मिट्टी । मुट्टी, गौमूत्र आवश्यकतानुसार।

Ø बनाने की विधि - गोबर, गुड़, बेसन व मिट्टी को अच्छी तरह मिला ले। आवश्यकतानुसार इसमें थोड़ा-थोड़ा गो-मूत्र मिलाएं। इस मिश्रण को 2-4 दिन तक छाया में अच्छी तरह सुखाएं। घनजीवामृत। धनजीवामृत को अच्छी प्रकार सूखाने ब बारीक करणे के बाद खेत में उपयोग करें।

जीवामृत - पानी 180 लीटर, देशी गाय का गोबर 10 किग्रा. गौमुत्र 5-10 लीटर, गुड़ से 15 किग्रा. खेत व मेड़ की मिट्टी । मुट्टी।

Ø बनाने की विधि - उपरोक्त सामग्रियों को अच्छी तरह टंकी में घोल ले। घोल को घड़ी की सुई की दिशा में 2-3 मिनट तक घोलें। टंकी को बोरी से ढक कर 72 घण्टे तक छांव में रख दें। सुबह शाम दो-दो मिनट घोलें। इस घोल का उपयोग 7 दिन के अन्दर करलें।

नीमास्त्र - घटक - नीम की हरी पत्तियाँ या सूखे फल 5 किग्रा, देशी गाय का गोबर। किग्रा. गी-मूत्र 5 लीटर, पानी 100 लीटर ।

Ø बनाने की विधि - नीम की हरी पत्तियाँ या सूखे फलो को कूट कर एवं देशी गाय के मूत्र एवं गोबर को पानी में मिलाये। मिश्रण को सुबह-शाम लकड़ी से घड़ी की दिशा में घुमाएं 148-95 घण्टे बाद कपड़े से छानकर, फसल पर छिड़काव करें।

अग्नि-अस्त्र - नीम के पत्ते 5 किग्रा. गी-मूत्र 20 लीटर लम्बा पाउडर 500 ग्राम. तीखी मिर्च की चटनी 500 ग्राम देशी लहसुन की चटनी 500 ग्राम।

Ø बनाने की विधि - के पत्ते, तम्बाकू पाउडर, 500 ग्राम मिर्च की चटनी व 500 ग्राम लहसुन की चटनी को 20 लीटर गो-मूत्र में मिलाकर धीमी आँच पर उबाल लें। मिश्रण को 48 घण्टे के लिए रख दें व इस मिश्रण को सुबह-शाम लकड़ी के डण्डी से घुमाएं। मिश्रण का 6-8 लीटर घोल 200 लीटर पानी में मिलाकर फसल पर छिड़काव करें। इसको 3 महीने के अन्दर श्री उपयोग करलें।

बीजामृत -  पानी 20 लीटर, देशी गाय का गोबर 5 किग्रा, गौ-मूत्र 5 लीटर, चूना 25 ग्राम, खेत या मेड़ की मिट्टी । मुट्ठी।

Ø बनाने की विधि - उपरोक्त सामग्रियों को अच्छी तरह टंकी में घोल ले। घोल को 2-3 मिनट तक घुमाएं। टंकी को बोरी से ढक दें। सुबह-शाम दो-दो मिनट घुमाएं। इस घोल को 24 घण्टे रखने के बाद बीजो पर संचारित करें।

ब्रह्मास्त्र - गौ-मूत्र 10 लीटर, गीम के पत्ते 5 किग्रा: गीम. आम, अमरूद, अरण्डी के पत्तो की चटनी 2-2 किग्रा.।

Ø बनाने की विधि - वनस्पतियों के पत्ते की चटनी को मो-मूत्र में डालकर धीमी आँध पर एक उबाल आने तक गर्म करें। इसके बाद 48 घण्टे तक ठण्डा होने के लिए रख दें। 2.5-3 लीटर घोल को 100 लीटर पानी में मिलाकर एक एकड़ की फसल पर छिड़काव करें